Myfayth

पार्वती चालीसा (Parvati Chalisa)

॥ दोहा ॥

जय गिरी तनये दक्षजे

शम्भू प्रिये गुणखानि ।

गणपति जननी पार्वती

अम्बे! शक्ति! भवानि ॥
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॥ चौपाई ॥

ब्रह्मा भेद न तुम्हरो पावे ।

पंच बदन नित तुमको ध्यावे ॥

षड्मुख कहि न सकत यश तेरो ।

सहसबदन श्रम करत घनेरो ॥

तेऊ पार न पावत माता ।

स्थित रक्षा लय हिय सजाता ॥

अधर प्रवाल सदृश अरुणारे ।

अति कमनीय नयन कजरारे ॥

ललित ललाट विलेपित केशर ।

कुंकुंम अक्षत शोभा मनहर ॥

कनक बसन कंचुकि सजाए ।

कटी मेखला दिव्य लहराए ॥

कंठ मदार हार की शोभा ।

जाहि देखि सहजहि मन लोभा ॥

बालारुण अनंत छबि धारी ।

आभूषण की शोभा प्यारी ॥

नाना रत्न जड़ित सिंहासन ।

तापर राजति हरि चतुरानन ॥

इन्द्रादिक परिवार पूजित ।

जग मृग नाग यक्ष रव कूजित ॥ 10

गिर कैलास निवासिनी जय जय ।

कोटिक प्रभा विकासिनी जय जय ॥

त्रिभुवन सकल कुटुंब तिहारी ।

अणु अणु महं तुम्हारी उजियारी ॥

हैं महेश प्राणेश तुम्हारे ।

त्रिभुवन के जो नित रखवारे ॥

उनसो पति तुम प्राप्त कीन्ह जब ।

सुकृत पुरातन उदित भए तब ॥

बूढ़ा बैल सवारी जिनकी ।

महिमा का गावे कोउ तिनकी ॥

सदा श्मशान बिहारी शंकर ।

आभूषण हैं भुजंग भयंकर ॥

कण्ठ हलाहल को छबि छायी ।

नीलकण्ठ की पदवी पायी ॥

देव मगन के हित अस किन्हो ।

विष लै आपु तिनहि अमि दिन्हो ॥

ताकी तुम पत्नी छवि धारिणी ।

दुरित विदारिणी मंगल कारिणी ॥

देखि परम सौंदर्य तिहारो ।

त्रिभुवन चकित बनावन हारो ॥ 20

भय भीता सो माता गंगा ।

लज्जा मय है सलिल तरंगा ॥

सौत समान शम्भू पहआयी ।

विष्णु पदाब्ज छोड़ि सो धायी ॥

तेहि कों कमल बदन मुरझायो ।

लखी सत्वर शिव शीश चढ़ायो ॥

नित्यानंद करी बरदायिनी ।

अभय भक्त कर नित अनपायिनी ॥

अखिल पाप त्रयताप निकन्दिनी ।

माहेश्वरी हिमालय नन्दिनी ॥

काशी पुरी सदा मन भायी ।

सिद्ध पीठ तेहि आपु बनायी ॥

भगवती प्रतिदिन भिक्षा दात्री ।

कृपा प्रमोद सनेह विधात्री ॥

रिपुक्षय कारिणी जय जय अम्बे ।

वाचा सिद्ध करि अवलम्बे ॥

गौरी उमा शंकरी काली ।

अन्नपूर्णा जग प्रतिपाली ॥

सब जन की ईश्वरी भगवती ।

पतिप्राणा परमेश्वरी सती ॥ 30

तुमने कठिन तपस्या कीनी ।

नारद सों जब शिक्षा लीनी ॥

अन्न न नीर न वायु अहारा ।

अस्थि मात्रतन भयउ तुम्हारा ॥

पत्र घास को खाद्य न भायउ ।

उमा नाम तब तुमने पायउ ॥

तप बिलोकी ऋषि सात पधारे ।

लगे डिगावन डिगी न हारे ॥

तब तब जय जय जय उच्चारेउ ।

सप्तऋषि निज गेह सिद्धारेउ ॥

सुर विधि विष्णु पास तब आए ।

वर देने के वचन सुनाए ॥

मांगे उमा वर पति तुम तिनसों ।

चाहत जग त्रिभुवन निधि जिनसों ॥

एवमस्तु कही ते दोऊ गए ।

सुफल मनोरथ तुमने लए ॥

करि विवाह शिव सों भामा ।

पुनः कहाई हर की बामा ॥

जो पढ़िहै जन यह चालीसा ।

धन जन सुख देइहै तेहि ईसा ॥ 40

॥ दोहा ॥

कूटि चंद्रिका सुभग शिर,

जयति जयति सुख खा‍नि

पार्वती निज भक्त हित,

रहहु सदा वरदानि ।

॥ इति श्री पार्वती चालीसा ॥

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